क्षंणिकाएँ / नरेश गुर्जर
1,
शीशम छांग रहे लड़के से
माँ ने जोर देकर कहा
वो टहनियाँ छोड़ देना बेटा
जिन पर किसी पंखेरू का घर हो
मैं जानती हूँ
घोंसले कैसे बनते हैं!
2,
आईने के पास
असंख्य चेहरे थे
आदमी के
आदमी के पास नही था
एक भी चेहरा
आईने का
3,
बहुत सी चीजों से
मुझे बचना होता है
पर बच नहीं पाता हूँ
उनमें से एक है
मेरी अपनी आंखें
मैं अक्सर यह जानने के लिए उन्हें देखता हूँ
कि कहीं वो मुझे देख तो नहीं रही
और मैं पकड़ा जाता हूँ।
4,
वो नहीं रखती है
कप और प्लेट को
अलग-अलग
चाय पी लेने के बाद
वो जानती है
साथ ज़रूरत भर का नहीं होता
जीवन भर का होता है।
5,
जिन्हें प्रेम मिला
उन्होंने प्रेम में
कविताएं लिखी
और जिन्हें नहीं
उन्होंने कविताओं में
प्रेम लिखा।
6,
बोलता वो भी है
जिसके पास
ना तो स्वर है
और न ही शब्द
ध्यान से सुनो
किसी फूल को
हो सकता है
वो आवाज हो
किसी जड़ की।
7,
समय का वो हिस्सा
सबसे अधिक खूबसूरत होता है
जो आपका होते हुए भी
किसी और का हो।
8,
खिड़की के बाहर एक पेड़ है
जो एक लंबे पतझड़ से गुजरा है
खिड़की के भीतर दो आंखें है
जो कब से छलकी नहीं है
दोनों में एक उम्मीद का संबंध है।
9,
पानी में उतर कर भी
जो सोचता रहा
उस पार के किनारे को
वो कभी नहीं जान पाया
स्पर्श के सुख को।
10,
अगर तुम
पानी को पढ़ने की कला जानते हो
तो बारिश तुम्हारे लिए
एक खूबसूरत किताब है।
11,
आश्चर्य नहीं
कि तुम मुझसे अथाह प्रेम करो
फिर भी एक दिन मुझे अकेला छोड़ कर
मुझसे आगे बढ़ जाओ
यह इसलिए भी होता आया है
क्योंकि प्रेम
पीछे मुड़ कर
खुद को देखने का भी
एक ढंग है।
12,
शत प्रतिशत दुःख
नहीं कहा जा सका किसी कविता में
और ना ही हर कवि के हिस्से में आया
कोई इतना गहरा स्पर्श
जो छू सकता था
उसके अव्यक्त को।
13,
कभी-कभी
बंद आंखों से
खुद में देखता हूँ देर तक
और यह ठीक ऐसा होता है
कि जैसे किसी शोर से निकल कर
किसी स्वर की तरफ जा रहा हूँ
जो मुझे छूने की प्रार्थना में
वर्षों से मौन है
14,
द्वार पर खड़ा भिक्षुक
तुम्हारा नाम नहीं जानता
तुम्हारे हाथ देखता है।
15,
लौट कर देखा तो
वहाँ वैसा कुछ नहीं था
जिसके लिए मैं लौटा था
वापस अपनी ओर लौटते हुए सोचा मैंने
वो सिर्फ किसी की याद हो सकती है
जिसे बचाया जा सकता है
बदल जाने से।
16,
मौन....
आईने के आगे रखा हुआ
एक और आईना है।