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क्षण भर को आई अधरों पर हंसी / प्रमोद तिवारी

क्षण भर को आयी अधरों पर
हंसी बहुत हल्की
जलती हुई रेत पर जैसे
एक बूंद जल की

अभी सुनाये ही थे हमने
किस्से सपनों के
और सांप छाती पे लगे
लोटने अपनों के
मर्यादित पथ पर
बाहर से
तनकर चलते हैं
भीतर ही भीतर तय करते
यात्रा जंगल की

किसने कौड़ी फेंकी
किसने सागर जीता है
अपना घट पहले रीता था
अब भी रीता है
वामन के कुल तीन डगों ने
नाप लिया सब कुछ
अपने पैरों को छलती कालीनें
दल-दल की

बढ़े हुये नाखूनों वाले
हाथों के आशीष
लेते-लेते देखो
धड़ से दूर हो गया शीश
किसी तरह पहचान बचाये
घूमा करते हैं
सर्पों से संघर्ष कर रहीं
राहें संदल की