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क्षमा / दीनदयाल गिरि
Kavita Kosh से
बानी कटु सुनि कोप की छमा गहो न गलानि ।
कहा हानि मृगराज की भूकत जौ लषि स्वान ।।
भूकत जौ लषि स्वान हारि मानैगो आपै ।
बैठि रहो हे बीर धीर तुम बोलत कापै ।।
बरनै दीनदयाल बात बुध बिमल बखानी ।
कीजै कछु न सोच सठन की सुनि कटु बानी ।। ५५।।