भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्षीण इन्द्रधनुष / आलोक श्रीवास्तव-२
Kavita Kosh से
प्रेम
पतझर बन कर झरता है
तुम्हारे चेहरे से
शरद की एक दोपहर में
ओस बन कर
ठहरा रह जाता प्रेम
खिड़की से दिखाई देते
पेड़ के पत्ते पर
शरद की एक रात में
यथार्थ और स्वप्न के बीच
जितना दिखता
उससे ज़्यादा ओझल
क्षीण इंद्रधनुष है प्रेम
आषाढ़ के खुलते
नीलाकाश का ।