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क्या करूँ / वीरेन डंगवाल
Kavita Kosh से
क्या करूं
कि रात न हो
टीवी का बटन दबाता जाऊं देखूं खून-खराबे या नाच-गानों के रंगीन दृश्य
कि रोऊं धीमे-धीमे खामोश
जैसे दिन में रोता हूं
कि सोता रहूं
जैसे दिन-दिन भर सोता हूं
कि झगड़ूं अपने आप से
अपना कान किसी तरह काट लूं
अपने दांत से
कि टेलीफोन बजाऊं
मगर आंय-बांय-शांय कोई बात न हो