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क्या वायु कहीं पर्वत की चोटी ही / कालिदास
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अद्रे: श्रृंगं हरति पवन: किंस्विदित्युन्मुखीभि-
र्दृष्टोत्साहश्चकितचकितं मुग्धसिद्धङग्नाभि:।
स्नानादस्मात्सरसनिचुलादुत्पतोदड़्मुख: खं
दिड़्नागानां पथि परिहरन्थूलहस्तावलेपान्।।
क्या वायु कहीं पर्वत की चोटी ही उड़ाये
लिये जाती है, इस आशंका से भोली
बालाएँ ऊपर मुँह करके तुम्हारा पराक्रम
चकि हो-होकर देखेंगेी।
इस स्थान से जहाँ बेंत के हरे पेड़ हैं,
तुम आकाश में उड़ते हुए मार्ग में अड़े
दिग्गजों के स्थूल शुंडों का आघात बचाते
हुए उत्तर की ओर मुँह करके जाना।