खंड-11 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
माया अति बलवान है, सब इसके आधीन।
त्रिगुण फाँस ले हँस रही, करके सबको लीन।।
करके सबको लीन, वही सब नाच नचाती।
काम क्रोध मद लोभ, दिलाकर रोज फँसाती।
कह ‘बाबा’ कविराय, कहाँ कोई बच पाया।
मायापति को छोड़, शेष को ठगती माया।।
करता हूँ मैं प्रार्थना, प्रभु से नित करबद्ध।
साहित्यिक निर्माण में, जीवन हो प्रतिबद्ध।।
जीवन हो प्रतिबद्ध, नित्य रचना कर पाऊँ।
सुन्दर-सुन्दर छंद, बनाकर खूब सुनाऊँ।
कह ‘बाबा’ कविराय, काव्य में जीता मरता ।
अभिलाषा है मात्र, हमेशा कविता करता।।
पाकर ही भगवत्कृपा, स्वप्न हुआ साकार।
एक वर्ष में बन गए, दोहे एक हजार।।
दोहे एक हजार, छंद मैं नित्य बनाता।
पर दोहे से मोह, अधिक ही बढ़ता जाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, धन्य हूँ दोहे गाकर।
सार्थक है यह जन्म, यही वर प्रभु से पाकर।।
शादी को तो मानिए, बिजली के दो तार।
सही जुड़े तो रोशनी, गलत जोड़ दे मार।।
गलत जोड़ दे मार, करें न कभी नादानी।
जोड़ी ही अनुकूल, बनाती सफल कहानी।
कह ‘बाबा’ कविराय, विषम से हो बर्बादी।
सोचसमझ कर आप, करेंगे जब भी शादी।।
कर्त्तापन को त्याग दें, करें नहीं अभिमान।
योगक्षेम सब प्रभु करे, है गीता का ज्ञान।।
है गीता का ज्ञान, कर्म हो प्रभु से प्रेरित।
प्रभु देते संकेत, करें आज्ञा अनुमोदित।
कह ‘बाबा’ कविराय, रखें सबसे अपनापन।
करें विहित सब कर्म, भुलाकर निज कर्त्तापन।।
जिसने जीता क्रोध को, जगत से न आसक्त।
वह विदेह प्रभु प्रेम में, रहे सदा अनुरक्त।।
रहे सदा अनुरक्त, कृष्ण गुण हरदम गाता।
पा जग में सम्मान, सभी को वह है भाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, परम पद पाया उसने।
हो विजयी सर्वत्र, क्रोध को जीता जिसने।।
मेरे पूरे हो गए, अर्थ धर्म या काम।
जाने को उद्यत सदा,मिले पूर्ण विश्राम।।
मिले पूर्ण विश्राम, जगत से क्यों हो ममता।
स्वागत को तैयार, मृत्यु दिखला दे क्षमता।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं कुछ कार्य अधूरे।
पूर्ण सभी अध्याय, बुला लें प्रभु अब मेरे।।
देते हैं बरसात के, कीड़े यह सद्ज्ञान।
पंख लगे तो हो गई, अब छोटी यह जान।।
अब छोटी यह जान, गमन की कर तैयारी।
अतिशय का हो अंत, करें क्यों मारामारी।
कह ‘बाबा’ कविराय, सीख हम उनसे लेते।
कीट-पतंगें ज्ञान, सदा हमको हैं देते।।
ज्ञानीजन कहते नहीं, अपने को विद्वान।
जो ऐसा कहता फिरे, समझो है नादान।।
समझो है नादान, सदा निज गुण ही गाता।
करे मात्र बकवास, नहीं है अन्य सुहाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, करे अपनी मनमानी।
बने हास्य के पात्र, कहे जो खुद को ज्ञानी।।
कहता हूँ मैं ठाठ से, इसे सत्य लें मान।
तन से तो मैं वृद्ध हूँ, मन से एक जवान।।
मन से एक जवान, हमेशा हँसकर जीता।
सुख-दुख को सम जान, पढ़ूँ मैं प्रतिदिन गीता।
कह ‘बाबा’ कविराय, मौज में हरदम रहता।
जग जाते जब भाव, बना पद्यों में कहता।।