खंड-13 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
सुख-दुख तो प्रारब्ध हैं, जिसको कहते भाग्य।
सब भोगो निर्लिप्त रह, यही मात्र वैराग्य।।
यही मात्र वैराग्य, भुला दो तुम कर्तापन।
बन जा एक निमित्त, सभी से रख अपनापन।
कह ‘बाबा’ कविराय, रहो प्रभु के ही सम्मुख।
मिले नहीं आभास, कहाँ क्या होता सुख-दुख।।
यह कहना-‘मैं श्रेष्ठ हूँ’, यही आत्म विश्वास।
मैं ही केवल श्रेष्ठ हूँ, इसमें मद आभास।।
इसमें मद आभास, इसी पर लोग हँसेंगे।
होता मद का अंत, यही सब लोग कहेंगे।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं चाहो यह सहना।
बने रहो तुम श्रेष्ठ, नहीं मुँह से यह कहना।।
आया खाली हाथ था, जाना खाली हाथ।
फिर घमंड किस बात का, जाएगा क्या साथ।
जाएगा क्या साथ, वहाँ जाना है खाली।
बोलो कौन समर्थ, करे धन की रखवाली।
कह ‘बाबा’ कविराय, लिए कोई जा पाया?
जाएगा सब छोड़, जहाँ से मानव आया।।
निष्ठा व्यय तुम कर सको, पालो फिर विश्वास।
बिन उसके तुम मत करो, कभी किसी से आस।।
कभी किसी से आस, असंभव ही है करना।
यह होगा जलहीन, कुएँ से पानी भरना।
कह ‘बाबा’ कविराय, बढ़ेगी जगत - प्रतिष्ठा।
बन सकते गणमान्य, अगर रख पाओ निष्ठा।।
ठोकर खाकर सीख ले, बन समर्थ इन्सान।
सदा कर्मपथ पर चलो, हरदम सीना तान।।
हरदम सीना तान, किसी से मत टकराओ।
कर्म करो सब नेक, रामधुन हरदम गाओ।
कह ‘बाबा’ कविराय, फिर रहो प्रभु का होकर।
मानवता कर प्राप्त, भले लग जाए ठोकर।।
अपमानित हो चुप रहे, समझो है वह संत।
निर्विकार बन घूमता, सद्यः है भगवंत।।
सद्यः है भगवंत, उसे विदेह तुम जानो।
ईश्वर का यह रूप, समझकर तुम पहचानो।
कह ‘बाबा’ कविराय, करो उसको सम्मानित।
हो हालत विपरीत, न कर हरगिज अपमानित।।
आगे बढ़ जा भूलकर, धोखा छल अपमान।
जैसे कड़वी गोलियाँ, खा लेता इंसान।।
खा लेता इंसान, दवाई उसको जानो।
जो करता है तंग, उसे भी अपना मानो।
कह ‘बाबा’ कविराय, उसे लो जान अभागे।
सबको पीछे छोड़, बढ़ो तुम हरदम आगे।।
उनसे सीखा छंद का, कुछ बुनियादी ज्ञान।
फिर मैंने अभ्यास से, सीखा छंद विधान।।
सीखा छंद विधान, अभी हर छंद बनाता।
मिलता है जब मंच, सभी को खूब झुमाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, बना हूँ मानव जिनसे।
गुरु हैं ब्रह्म समान, बहुत कुछ सीखा उनसे।।
बरसाने की छोरियाँ, खेले रंग अबीर।
लट्ठमार होली सहित, भींगे सकल शरीर।।
भींगे सकल शरीर, कृष्ण से रास रचातीं।
सभी गोपियाँ मस्त, सदा हुड़दंग मचातीं।
कह ‘बाबा’ कविराय, लगी राधा हरसाने।
सार्थक होगा जन्म, देख आ अब बरसाने।।
गुरुवर सीखा आपसे, जो कुछ छंद विधान।
सदुपयोग मैं कर रहा, जितना पाया ज्ञान।।
जितना पाया ज्ञान, उसी से कुछ लिख पाता।
मिलता है संतोष, मंच पर खूब सुनाता।
कह ‘बाबा’ कविराय, श्रेष्ठ ज्यों वट है तरुवर।
सद्यः ब्रह्म समान, हमारे पूजित गुरुवर।।