खंड-16 / पढ़ें प्रतिदिन कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
कृष्णा बनकर ही लिया, पूर्णब्रह्म अवतार।
एकमात्र सच हैं वही, नश्वर है संसार।।
नश्वर है संसार, दीखती है बस माया।
जिसने धर बहुरूप, जगत को है भरमाया।।
आत्मा शाश्वत व्रह्म, शेष को जानें तृष्णा।
सार्थक होगा जन्म, उबारेंगे जब कृष्णा।।
राधा हैं सच्चिन्मयी, कृष्ण सच्चिदानन्द।
इन दोनों की हो कृपा, मिलता परमानन्द।।
मिलता परमानन्द, जन्म सार्थक हो जाता।
अर्जित होते पुण्य, मनुज तन फिर वह पाता।।
रहे समर्पण भाव, दूर होती हर बाधा।
जहाँ रहेंगे कृष्ण, वहीं रहती हैं राधा।।
गीता से हम सीखते, कर्मयोग का ज्ञान।
कर्मभूमि में सर्वदा, हो जीना आसान।।
हो जीना आसान, हमेशा युद्ध करेंगे।
जीवन है संग्राम, कृष्ण संताप हरेंगे।
कह “बाबा” कविराय, उसी ने जग को जीता।
लेकर प्रभु का नाम, पढ़़ेगा जो भी गीता।।
होती ही है जा रही, हरियाली अब लुप्त।
मानवीय संवेदना, क्रमशः होती सुप्त।।
क्रमशः होती सुप्त, नित्य हम पेड़ लगाएँ।
हरे भरे वन बाग, सजाकर स्वर्ग बसाएँ।।
करे प्रकृति तब नाश, धैर्य जब अपना खोती।
कभी अकारण क्रुद्ध, नहीं कथमपि वह होती।।
भक्षक बनते जा रहे, जंगल के हम आप।
कुपित आज पर्यावरण, देता है अभिशाप।।
देता है अभिशाप, उजड़ते जाते जंगल।
प्राणवायु हो लुप्त, कहें कैसे हो मंगल।।
नित्य लगाएँ पेड़, बनें हम वन-संरक्षक।
या कर देगी नाश, प्रकृति ही बनकर भक्षक।।
जाता है वह काम पर, साईकिल के साथ।
कभी नहीं वह चाहता, बैठे खाली हाथ।।
बैठे खाली हाथ, काम है उसको करना।
भूखा है परिवार, पेट है सबका भरना।।
करने को आराम, नहीं अवसर वह पाता।
बहुत सबेरे नित्य, काम करने है जाता।।
वैसे तो देता मुझे, बहुत स्नेह संसार।
पर विस्मृत होता नहीं, पहला-पहला प्यार।।
पहला-पहला प्यार, याद जब उसकी आती।
हो जाता बेचैन, नहीं वह रात भुलाती।।
वह अनुपम आनन्द, भुला जा मैं कैसे।
पंछी पंख विहीन, ज़िन्दगी कटती वैसे।।
मिलता है हर सुख मुझे, जीवन है आबाद।
पर वह पहला प्यार भी, आता प्रतिपल याद।।
आता प्रतिपल याद, ज़िन्दगी आज अधूरी।
स्वर्णिम स्वप्निल चाह; कहो हो कैसे पूरी।।
स्नेहयुक्त वह पुष्प, काश!हृदवन में खिलता।
प्रायः पहला प्यार, भाग्यशाली को मिलता।।
पाता है कोई अगर, पहला-पहला प्यार।
पा लेता आनन्द वह, भूल सकल संसार।।
भूल सकल संसार, बहुत आनन्दित होता।
प्यार गया यदि टूट, धैर्य वह अपना खोता।।
है जिसको सद्ज्ञान, नहीं सदमे में आता।
आता जब सौभाग्य, प्यार इच्छित वह पाता।।
पारा चढ़ता जा रहा, मचता हाहाकार।
बढ़ती जाती उष्णता, है मौसम की मार।।
है मौसम की मार, सहें हम गरमी कैसे।
प्रकृति कुपित है आज, दिखाए नरमी कैसे।।
उजड़ रहे वन बाग, दोष है मात्र हमारा।
प्रारम्भिक यह रूप, चढ़ेगा अतिशय पारा।।