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खंड-17 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

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लज्जा होती है सदा, नारी का शृंगार।
इसे गँवाकर हो गया, नारी तन बेकार।।
नारी तन बेकार, शील ही होता गहना।
रख इसको अक्षुण्ण, सभी का है यह कहना।
कह ‘बाबा’ कविराय, व्यर्थ है सारी सज्जा।
वह नारी ही धन्य, बची है जिसकी लज्जा।।

उसके देख कुकर्म को, लज्जित सभ्य समाज।
पर उसको निज कृत्य पर, कभी न आती लाज।।
कभी न आती लाज, कहे सब लोग कुकर्मी।
कर लें लाख उपाय, नहीं सुधरे बेशर्मी।
कह ‘बाबा’ कविराय, घृणित ही साथी जिसके।
छल-प्रपंच या घात, संग में रहते उसके।।

आसन प्राणायाम से, करते रहिए योग।
जीवन का रस भोगिए, रहकर आप निरोग।।
रहकर आप निरोग, सजाएँ सुन्दर सपना।
जब हों सुन्दर कार्य, बनेगा जग ही अपना।
कह ‘बाबा’ कविराय, वही कर सकता शासन।
पाता स्वस्थ शरीर, सदा जो करता आसन।।

ठोकर खाकर जब उड़े, मिट्टी भी बन धूल।
अपमानित हो चुप रहो, है यह तेरी भूल।।
है यह तेरी भूल, दिखा मत निज कमजोरी।
साधारण भी लोग, करेगा सीनाजोरी।
कह ‘बाबा’ कविराय, रहोगे भोला होकर।
बात-बात पर लोग, हमेशा मारे ठोकर।।

तन मन वसन मलीन हो, भोजन शयन अमेल।
नारायण भी यह करें, लक्ष्मी देतीं ठेल।।
लक्ष्मी देतीं ठेल, सदा जो स्वच्छ दिखेगा।
पाकर वह ऐश्वर्य, स्वयं निज भाग्य लिखेगा।
कह ‘बाबा’ कविराय, उसी को चाहे जन-जन।
भीतर बाहर शुद्ध, रहेगा जिसका तनमन।।

करता है वह सर्वदा, मात्र घृणित ही काज।
दाँत निपोड़े हँस रहा, लगे न उसको लाज।।
लगे न उसको लाज, वंश का नाम डुबाया।
हरदम हाँके डींग, बड़प्पन उसमें पाया।
कह ‘बाबा’ कविराय, श्रेष्ठता का दम भरता।
ऐसा कौन कुकर्म, नहीं वह जिसको करता।।

अतिशय तत्सम रूप में, बने क्लिष्ट साहित्य।
भाषा सरल सुबोध भी, रखती है लालित्य।।
रखती है लालित्य, वही है अच्छी रचना।
जिसे पढ़ें सब लोग, सजाए सुन्दर सपना।
कह ‘बाबा’ कविराय, अर्थ से उपजे संशय।
वह रचना ही व्यर्थ, क्लिष्टता जिसमें अतिशय।।

जाने बस अधिकार ही, करे नहीं कर्तव्य।
वह बेचारा लालची, जा न सके गन्तव्य।।
जा न सके गन्तव्य, स्वार्थ में रहता अंधा।
वह चाहे दिनरात, हमेशा अपना धंधा।।
कह ‘बाबा’ कविराय, किसी का कथन न माने।
अपने धुन में लीन, मात्र वह हक़ ही जाने।।

कामी देखे रूप को, मधुर न बोले दुष्ट।
सदा सत्य जो बोलता, उससे सब संतुष्ट।।
उससे सब संतुष्ट, काम ही चाहे कामी।
दुष्ट कहे अपशब्द, छिपाने निज नाकामी।
कह ‘बाबा’ कविराय, क्रूरता में है नामी।
दानव-सा व्यवहार, करेगा हरदम कामी।।

सज्जन बाँटे ज्ञान नित, दुर्जन दे अज्ञान।
जो कुछ जिसके पास है, वह करता है दान।।
वह करता है दान, दुष्ट से बचकर रहना।
उचित बात मत बोल, नहीं वह जाने सहना।
कह ‘बाबा’ कविराय, करेगा सबका गंजन।
जहाँ रहे अल्पज्ञ, दुखी रहते हैं सज्जन।।