खंड-19 / पढ़ें प्रतिदिन कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
मिलता है संयोग से, जीवन में आनन्द।
खुशियों का आलम सदा, देता परमानन्द।।
देता परमानन्द, क्षणिक सुख आता जाता।
चिर शाश्वत आनन्द, परम पद ही दे पाता।।
यह है सबको ज्ञात, पंक में पंकज खिलता।
करें सतत सत्कर्म, भाग्य से सबकुछ मिलता।।
पाते हैं प्रारब्ध से, हम सुखमय परिवार।
खुशियों काआलम नहीं, तो सबकुछ बेकार।।
तो सबकुछ बेकार, स्नेह हो प्राप्त निरन्तर।
रहे त्याग का भाव, मिले फिर प्रेम परस्पर।।
सुख-दुख में हो साथ, गीत खुशियाँ के गाते।
यह कुटुम्ब आदर्श, भाग्य से ही हम पाते।।
चलते हैं हम घूमने, नील गगन के पार।
पूर्ण चन्द्र की चन्द्रिका, बढ़ा रही उद्गार।।
बढ़ा रही उद्गार नाव है बिल्कुल खाली।
हो आनन्द विहार, रात लगती मतवाली।।
है प्रियतम जब संग, भाव परिणय के पलते।
आओ पकड़ें हाथ, घूमने हम हैं चलते।।
करना विद्या दान ही, गुरुजन की थी चाह।
पाकर ही गुरुदक्षिणा, होता था निर्वाह।।
होता था निर्वाह, शिष्य भी सेवा करते।
बनकर वे विद्वान, दम्भ गुरु पर थे भरते।
पा आध्यात्मिक ज्ञान, लक्ष्य था आगे बढ़ना।
लोभ ग्रसित सब आज,, वृत्ति धन अर्जित करना।।
रहते थे शिक्षक सभी, लोभ वृत्ति से दूर।
होते आनन्दित सदा, ज्ञान बाँट भरपूर।।
ज्ञान बाँट भरपूर, लक्ष्य था मात्र पढ़ाना।
रखते थे बस ध्येय, शिष्य को योग्य बनाना।।
खुद सह लेते कष्ट, नहीं औरों से कहते।
हरदम वे संतुष्ट, दक्षिणा पाकर रहते।।
आदर दिन का है क्षणिक, उसका होता अन्त।।
प्रीत निशा से जो करें, वे होते हैं सन्त।।
वे होते हैं सन्त, संयमी तब हैं जगते।
ध्यान योग के संग, साधना हैं वे करते।।
मिलता परमानन्द, प्रेम का अद्भुत सागर।
पा लेते वे मोक्ष, जगत में पाते आदर।।
जगते दिन में जीव जब, मुनियों की वह रात।
निशाकाल में वे सतत, करते प्रभु से बात।
करते प्रभु से बात, जगत के प्राणी सोते।
मिलता जब एकान्त, ध्यान मुद्रा में खोते।।
भौतिकवादी लोग, स्वयं को रहते ठगते।
दिन में कर आराम, निशा में मुनिजन जगते।।
खेती कर मेरे पिता, उपजाते थे अन्न।
क्रमशः वे होते गये, निर्धन और विपन्न।।
निर्धन और विपन्न, पढ़ाया फिर भी मुझको।
जीने का हर ढंग, सिखाया फिर भी मुझको।।
कहते थे वे नित्य, शारदे विद्या देती।
देते थे सद्ज्ञान, स्वयं करते थे खेती।।
रहते थे सान्निध्य में, उनके कुछ विद्वान।
थे किसान मेरे पिता, प्रतिदिन करते दान।।
प्रतिदिन करते दान, द्वार पर जो भी आते।
सब होते सन्तुष्ट, दान भी प्रायः पाते।।
मरने के भी बाद, सुयश सब उनका कहते।
जो करते सत्कर्म, हृदय में सबके रहते।।
माता तुमसे जन्म ले, पाया रूप अनूप।
माँ मेरी तुम क्या नहीं, देवी दुर्गा रूप।।
देवी दुर्गा रूप, तुम्हीं से जीवन पाया।
पालपोस कर ज्ञान, दिया पुनि योग्य बनाया।।
तुम नहि देती ध्यान, नहीं मैं जग में आता।
मेरा तो सर्वस्व, एक तुम ही हो माता।।