खंड-21 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
जीवन सीख समुद्र से, जो बहता चुपचाप।
मस्त रहे वह मौज में, उसे न पश्चाताप।।
उसे न पश्चाताप, सदा वह संयम रखता।
है वह रत्नागार, कभी अभिमान न करता।
कह ‘बाबा’ कविराय, भले है अक्षय यौवन।
अपनी सीमा जान, रखे मर्यादित जीवन।।
होती है मतभिन्नता, जब अपनों के बीच।
लगा युक्ति दें स्नेह को, प्रेम वारि से सींच।।
प्रेम वारि से सींच, प्रेम है असली पूंजी।
होने मत दें न्यून, हाथ में रखिए कुंजी।।
कह ‘बाबा’ कविराय, यही है जीवन मोती।
यह दौलत हो पास, शान्ति फिर मन में होती।।
जाना है जब दूर तक, बढ़ा दीजिए डेग।
मंजिल आए निकटतर, देख आपका वेग।।
देख आपका वेग, काव्य भी रच दें ऐसा।
रह जाए सब दंग, काम ही कर दें वैसा।।
कह ‘बाबा’ कविराय, याद है जग को आना।
करें कार्य सब श्रेष्ठ, एकदिन है जब जाना।।
जो करता है साधना, और कठिन अभ्यास।
फिर सारी उपलब्धियाँ, आतीं उसके पास।।
आतीं उसके पास, सफलता बनकर दासी।
घूमे चारों ओर, भागती दूर उदासी।।
कोसे अपना भाग्य, परिश्रम से जो डरता।
पा लेता सर्वस्व, साधना है जो करता।।
जन श्रुति के आधार पर, मूल्यांकन बेकार।
आत्मा अपनी जो कहे, वही मान्य आधार।।
वही मान्य आधार, शेष को जान अधूरा।
कहते मति अनुसार, अधूरे को भी पूरा।।
कह ‘बाबा’ कविराय, गलत हो सकती संस्तुति।
अनुभव होता श्रेष्ठ, नहीं मानें हम जन श्रुति।।
कहना चाहूँ आपसे, अपने दिल की बात।
ऐसी आरी दीजिए, कटे भयावह रात।।
कटे भयावह रात, बहुत भारी है जीना।
भूखा है परिवार, मात्र अब विष है पीना।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं अब दुख है सहना।
दे दें आरी एक, आप सबसे है कहना।।
करते हैं सब धूप को, व्यर्थ यहाँ बदनाम।
एक दूसरे से जले, अधिक यहाँ इंसान।।
अधिक यहाँ इंसान, अन्य से जलते रहता।
ऊपर से मुस्कान, दिखाकर ठगते रहता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, द्वेष ज्वाला में जलते।
थोप धूप पर दोष, गलतियाँ खुद ही करते।।
पाना है कुछ ज्ञान तो, बनें योग्य का शिष्य।
श्रद्धा से सीखें पुनः, पाएँ सुखद भविष्य।।
पाएँ सुखद भविष्य, ज्ञान बिन जीवन सूना।
प्रतिपल सीखें आप, बढ़े प्रतिदिन यह दूना।।
जानेंगे जब आप, शिष्य का धर्म निभाना।
गुरु के प्रति विश्वास, सुलभ कर दे सब पाना।।
होती है हर व्यक्ति की, अपनी-अपनी सोच।
जो मन हो लिखते रहें, करें नहीं संकोच।।
करें नहीं संकोच, बात दिल की सब कहते।
मन के सारे भाव, कलम से नित्य उगलते।।
कह ‘बाबा’ कविराय, शब्द से निकले मोती।
रचना फिर अनमोल, हृदय से निःसृत होती।।
माता-सा पालन करे, पितु-सा रक्षक धर्म।
सम्बंधी या मित्र-सा, प्रेरित कर सत्कर्म।।
प्रेरित कर सत्कर्म, धर्म की रीति यही है।
मत त्यागो निज धर्म, शास्त्र की नीति यही है।।
कह ‘बाबा’ कविराय, जिसे निज धर्म न भाता।
उसे नहीं आशीष, कभी भी देती माता।।