भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खंड-24 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सजधज बैठी नायिका, कर सोलह शृंगार।
प्रथम प्रणय की रात में, पति से पाने प्यार।।
पति से पाने प्यार, सोचती है वह इतना।
जितना दूँगी प्यार, मिलेगा मुझको उतना।।
कह ‘बाबा’ कविराय, रखेगी कितना धीरज।
आए प्रियतम शीघ्र, देर से बैठी सजधज।।

आयी है मधुयामिनी, मधुर मिलन की रात।
सहम रही है नायिका, क्या-क्या होगी बात।।
क्या-क्या होगी बात, सोचकर दिल घबड़ाता।
कैसे हो संवाद, ध्यान में बस यह आता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, बहुत ही है शरमायी।
थरथर काँपे देह, घड़ी ही ऐसी आयी।।

चलती है गजगामिनी, आकर्षक है चाल।
नायक का तो हो गया, बहुत बुरा ही हाल।।
बहुत बुरा ही हाल, नायिका जब मुस्काती।
ज्यों उत्तेजक गीत, मधुर धुन में हो गाती।।
कह ‘बाबा’ कविराय, कामना मन में पलती।
मौसम है अनुकूल, हवा भी मादक चलती।।

राधारानी कृष्ण-सा, अगर करोगे प्यार।
होगा फिर तेरा सुलभ, नर तन का उद्धार।।
नर तन का उद्धार, प्रेम ज्यों करती राधा।
है बिल्कुल निःस्वार्थ, नहीं है कुछ भी बाधा।।
कह ‘बाबा’ कविराय, प्रीति जिसने भी ठानी।
रखे समर्पण भाव, बने वह राधारानी।।

प्रभुवर मैंने आपसे, कभी न माँगी भीख।
पढ़कर गीता भागवत, लेता हूँ कुछ सीख।।
लेता हूँ कुछ सीख, आपका मात्र सहारा।
दूर करें अज्ञान, कुमति का मैं हूँ मारा।।
कह ‘बाबा’ कविराय, वृक्ष है वट का तरुवर।
आप त्रिलोकीनाथ, शरण में मैं हूँ प्रभुवर।।

प्रतिभा खुद ही फैलती, तोड़ सभी प्रतिबंध।
ज्यों कस्तूरी की उड़े, अपने आप सुगंध।।
अपने आप सुगंध, करे परिवेश सुवासित।
हीरा हो हरवक्त, जौहरी से परिभाषित।।
कह ‘बाबा’ कविराय, सदा चमका निज आभा।
पा लेता सम्मान, स्वयं ही जिसमें प्रतिभा।।

रखता मैं बिल्कुल नहीं, कभी स्वर्ग की चाह।
नहीं डरूँ मैं नर्क से, रहता बेपरवाह।।
रहता बेपरवाह, कृष्ण की सेवा करता।
अर्पित कर सब कर्म, उन्हीं पर दम भी भरता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, भजन का मेवा चखता।
मैं तो हूँ निष्काम, ध्यान बस प्रभु पर रखता।।

होते हैं दो व्यक्ति ही, सचमुच देव समान।
शक्तिवान करता क्षमा, निर्धन जो दे दान।।
निर्धन जो दे दान, स्वर्ग का वहअधिकारी।
पाता है सम्मान, कृपण ही एक भिखारी।।
कह ‘बाबा’ कविराय, पाप की गठरी ढोते।
करे नहीं जो दान, वही तो निर्धन होते।।

होता है प्रत्येक जन, बना काल का ग्रास।
पर रखता कोई नहीं, खोने का विश्वास।।
खोने का विश्वास, सदा दलदल में फँसता।
कर लेता अभिमान, दीन दुखियों पर हँसता।।
कह ‘बाबा’ कविराय, बाद में वह फिर रोता।
करता पश्चाताप, व्यर्थ जब नर तन होता।।

दलदल यह संसार है, बहुत यहाँ व्यवधान।
खुश हो जीना सीख लो, तब होगा कल्याण।।
तब होगा कल्याण, कृष्ण से नाता जोड़ो।
करो विहित सब कर्म, जगत से रिश्ता तोड़ो।।
कह ‘बाबा’ कविराय, रहो सतर्क तुम हर पल।
सोचो शीघ्र उपाय, छूट जाए यह दल-दल।।