होता है साहित्य का, सर्वांगीण विकास।
आयोजन ने रच दिया, पुनः नया इतिहास।।
पुनः नया इतिहास, लोग सब याद करेंगे।
हुआ खगड़िया धन्य, यही संवाद कहेंगे।।
कर सारस्वत यज्ञ, बीज साहित्यिक बोता।
इसीलिए हर वर्ष, श्रेष्ठ आयोजन होता।
रखता है जो सर्वदा, जोखिम में निज जान।
विजय पताका हाथ में, चलता सीना तान।।
चलता सीना तान, नाम भारत का लेता।
मातृभूमि रक्षार्थ, शीश भी अपना देता।।
जीने का हर स्वाद, सैन्यदल ही है चखता।
देने का बलिदान, हौसला दिल में रखता।।
मानो सुख-दुख को अगर, जीवन का शृंगार।
पथ के हर संघर्ष में, कभी न होगी हार।।
कभी न होगी हार, सदा खुश रहना सीखो।
मिले ग्रीष्म या शीत, सभी को सहना सीखो।।
कह “बाबा” कविराय, सीख शास्त्रों की जानो।
कहते हैं जो बात, वृद्धजन उसको मानो।।
कहता है हर शास्त्र भी, नश्वर है संसार।
चिर शाश्वत बस ब्रह्म है, कृष्ण नाम साकार।।
कृष्ण नाम साकार, सदा सान्निध्य मिले जब।
जीवन होगा धन्य, प्रेम का पुष्प खिले तब।।
कह “बाबा” कविराय, जहाँ तक मन जा सकता।
सब हैं क्षणभंगूर, वेद वर्णित मैं कहता।।
चलना ही है अनवरत, जीवन का मन्तव्य।
घुप्प अँधेरी रात है, बहुत दूर गन्तव्य।।
बहुत दूर गन्तव्य, श्रेष्ठ का साथ पकड़ लो।
जिसकी मंजिल एक, उसी का हाथ पकड़ लो।।
चल मशाल के साथ, विघ्न से फिर क्या डरना।
तुम पहले लो सीख, राह दुर्गम पर चलना।।
झुकना है शालीनता, विज्ञों की पहचान।
पर होता सबसे बड़ा, बचे आत्मसम्मान।।
बचे आत्मसम्मान, यही असली मानवता।
जो इसको दे त्याग, बढ़े उसकी दानवता।।
जहाँ न मिलता मान, वहाँ किञ्चित् मत रुकना।
सम्मुख हों जब श्रेष्ठ, उचित है फिर तो झुकना।।
करता था जब त्रस्त हो, त्राहि -त्राहि संसार।
द्रवित हुए पुनि अत्यधिक, हुआ कृष्ण अवतार।।
हुआ कृष्ण अवतार, दनुज था जो हत्यारा।
जितने भी थे दुष्ट, कृष्ण ने सबको मारा।।
कह “बाबा” कविराय, राक्षसों के संहर्ता।
लेते हैं वे जन्म, भक्त जब क्रन्दन करता।
जंगल क्यों हैं काटते, बनें नहीं बेशर्म।
नित्य लगाएँ पेड़ हम, जो है मानव धर्म।।
जो है मानव धर्म, करें पेड़ों की रक्षा।
'जागें भाई लोग', घूमकर दें यह शिक्षा।।
कह “बाबा” कविराय, जगत का होगा मंगल।
जीवन रक्षक वायु, मिलेगी जब हो जंगल।।
इसपर सारे विज्ञ दें, बहुत शीघ्र अब ध्यान।
होता है गौवंश का, क्रमशः क्यों अवसान।।
क्रमशः क्यों अवसान, गहन चिन्तन आवश्यक।
संख्या में हो वृद्धि, सही मन्थन आवश्यक।।
कामधेनु का रूप, गर्व है हमको जिसपर।
गौमाता हैं धन्य, सृष्टि टिकती है इसपर।।
होता ही है जा रहा, गायों का अवसान।
उत्तरदायी है सदा, मात्र मनुज सन्तान।।
मात्र मनुज सन्तान, कत्ल इसका जो करता।
दनुज वृत्ति को पाल, नहीं वह किञ्चित् डरता।
कह “बाबा” कविराय, दुखी हो सज्जन रोता।
बिना किये गोदान, यज्ञ हर निष्फल होता।।