खंड-5 / बाबा की कुण्डलियाँ / बाबा बैद्यनाथ झा
जो ईश्वर से मांगता, वह करता है धर्म।
ईश्वर खुद देने लगे, वैसा कर लो कर्म।।
वैसा कर लो कर्म, यही है प्रभु की सेवा।
कर्म करोगे श्रेष्ठ, मिलेगा तुमको मेवा।
कह ‘बाबा’ कविराय, जान लो बांकी नश्वर।
कर ऐसा सत्कर्म, नहीं करता जो ईश्वर।।
पकने लगते बाल जब, मिलता यह संकेत।
जाना है परलोक अब, हो जा शीघ्र सचेत।।
हो जा शीघ्र सचेत, कृष्ण से नाता जोड़ो।
भजो कृष्ण गोपाल, जगत से मतलब तोड़ो।
कह ‘बाबा’ कविराय, कहाँ जाओगे बचने।
देते तृष्णा छोड़, बाल जब लगते पकने।।
जंगल सब कटने लगे, मानव करो विचार।
कालचक्र मड़रा रहा, सह कुदरत की मार।।
सह कुदरत की मार, हवा भी घटती जाए।
प्राणवायु का लोप, कहो फिर कौन बचाए।
कह ‘बाबा’ कविराय, करोगे तब ही मंगल।
प्रतिदिन रोपो पेड़, बचेगा फिर यह जंगल।।
सारी खुशियाँ एकदिन, उसकी जातीं छीन।
अहंकार में सर्वदा, जो रहता तल्लीन।।
जो रहता तल्लीन, वही है प्रभु का भोजन।
मिलता ऐसा दंड, करे वह हरदम रोदन।
कह ‘बाबा’ कविराय, गमन की कर तैयारी।
कर लो हृदय पवित्र, मिलेंगी खुशियाँ सारी।।
जिसका मन हो विष भरा,सदा हृदय में खोट।
भारत में वह चाहता, जनसंख्या विस्फोट।।
जनसंख्या विस्फोट, बढ़ा अपनी आबादी।
माँगेगा निज तंत्र, करे सबकी बर्बादी।
कह ‘बाबा’ कविराय, बढ़ाओगे मन उसका।
होगा फिर अस्तित्व, रहेगा जन बल जिसका।।
‘मन’ तो है सबके लिए, रहे ‘मनोबल’ पास।
पूरा हर संकल्प हो, रखकर दृढ़ विश्वास।।
रखकर दृढ़ विश्वास, करोगे उद्यम जब-जब।
लगे सफलता हाथ, तुम्हारी जय हो तब-तब।
कह ‘बाबा’ कविराय, रहे ताकतवर तन तो।
कर संकल्पित कार्य, जपे प्रभु को यह मन तो।।
प्रोषित पतिका नायिका, झेल रही थी ठंड।
तोड़ा अब मधुमास ने, उसका प्रबल घमंड।।
उसका प्रबल घमंड, ठंड को दूर भगाया।
नायक था अति दूर, हृदय में काम जगाया।
कह ‘बाबा’ कविराय, कराकर छुट्टी घोषित।
भागा अपने गाँव, जहाँ थी पतिका प्रोषित।।
रोजी-रोटी के लिए, नायक गया प्रवास।
इधर नायिका ठंड में, त्याग चुकी हर आस।।
त्याग चुकी हर आस, हमेशा वह रोती है।
दिनभर देखे बाट, न रात कभी सोती है।
कह ‘बाबा’ कविराय, नहीं वह बाँधे चोटी।
चाहे केवल कंत, त्याग दे रोजी-रोटी।।
जितना खाओ फिर रहे, खाली पापी पेट।
भूखे को रोटी मिले, खाता तुरत समेट।।
खाता तुरत समेट, भूख है सब करवाती।
आपस में कर फूट, सदा सबको मरवाती।
कह ‘बाबा’ कविराय, बचोगे इससे कितना।
आपस में मिल बाँट, प्रेम से खाओ जितना।।
यह जो खाली पेट है, सब पापों का मूल।
सब करते इसके लिए, जानबूझकर भूल।।
जानबूझकर भूल, यही है राक्षस ऐसा।
सभी चाहते मात्र, मिले हरदम ही पैसा।
कह ‘बाबा’ कविराय, रुला .देती है थाली।
सब करवाता पेट, रहेगा यह जो खाली।।