खजुराहो के मन्दिर / केदारनाथ अग्रवाल
चंदेलों की कला-प्रेम की देन-- देवताओं के मन्दिर
बने हुए हैं अब भी अनिंद्य जो खड़े हुए हैं खजुराहो में,
याद दिलाते हैं हम को उस गए समय की
जब पुरुषों ने उमड़-उमड़ कर--
रोमांचित होकर समुद्र-सा,
कुच-कटाक्ष वैभव-विलास की
कला-केलि की कामिनियों को
बाहु-पाश में बांध लिया था,
और भोग-सम्भोग-सुरा का सरस पान कर,
देश-काल को, जरा-मरण को भुला दिया था ।
चले गए वे कामकण्ठ-आभरण पुरुष-जन;
चली गईं वे रूप-दीप-दीपित-बालाएँ;
लोप हुई वे मदन-महोत्सव की लीलाएँ;
शेष नहीं रह गईं हृदय की वे स्वर-ध्वनियाँ !
किन्तु मूर्तियाँ पुरुष-जनों की
- और मूर्तियाँ कामिनियों की
ज्यों की त्यों निस्पन्द खड़ी हैं उसी तरह से
देव-मन्दिरों की दीवारों पर विलास के हाव-भाव से ।
काल नहीं कर सका उन्हें खण्डित कृपाण से
किन्तु किसी दुर्धर मनुष्य ने
गदा मार कर कहीं-कहीं पर तनिक-तनिक-सा तोड़ दिया है;
और आज तक इसीलिए वे
- उसे कोसती हैं क्षण-प्रतिक्षण ।
नर हैं तो आजानु-बाहु उन्नत ललाट--
रागानुराग-रंजित शरीर हैं,
अधर-पान, कुच-ग्रहण,
- और आलिंगन में आसक्त लीन हैं।
तिय हैं तो आकुलित केश-पट-नदी-वेश,
कामातुर-मद विह्वल अधीर हैं,
सदियों से पुरुषों की जांघों पर बैठी करती विहार हैं ।
इन्हें नहीं संकोच-शील है;
यह मनोज के मन लोक के नर-नारी हैं,
आदि काल से इसी मोद के अधिकारी हैं;
चाहे हम-तुम कहें इन्हें, ये व्याभिचारी हैं !