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खड़े ऊँचाइयों पर पेड़ अक्सर सोचते होंगे / के. पी. अनमोल
Kavita Kosh से
खड़े ऊँचाइयों पर पेड़ अक्सर सोचते होंगे
ये पौधे किस तरह गमलों में रहकर जी रहे होंगे
अभी तक कान में दादी के मिश्री घोलते होंगे
जो इक-दो शब्द पहली बार पोते ने कहे होंगे
अचानक ठण्ड से ए.सी. की उचटी नींद तो सोचा
परिन्दे ऐसी गर्मी में झुलसते फिर रहे होंगे
उसे कुछ इस तरह शिद्दत से ख़ुद में ढूँढता हूँ मैं
मुसाफ़िर जिस तरह रस्ते में छाया ढूँढते होंगे
बुज़ुर्गों को सुनो, समझो, बहुत अच्छी तरह रक्खो
ये तुमसे कितनी उम्मीदें लगाकर जी रहे होंगे
उन्हें कह दो कि तुमको पार करके ही वो दम लेगा
जो दरिया, देखकर मुझको समन्दर हो गये होंगे
जिन्हें अनमोल ख़ुद को ही सुधरने की ज़रूरत है
अभी वो लोग औरों को नसीहत दे रहे होंगे