भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खण्ड-5 / मन्दोदरी / आभा पूर्वे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

युद्ध के आग बुझला के बादो
आय केन्होॅ लागै छै, लंका
जेना श्मशान जागी गेलोॅ रहेॅ
मतरकि
काहीं कोय योगी नै
खाली भूत-बैताल के छाया
आरो हड्डी-पंजर के अंबार
जेना काल
सब्भे केॅ चबाय
चली देलेॅ रहेॅ
एक हमरा अकेलोॅ छोड़ी केॅ।

हजारो-हजार ई परिचारिका
सेविका
सब भूत-बैताल के छाया नांखि
डोलै छै हमरोॅ आगू-पीछू
आरो हमरोॅ रक्षाधिप
सुती रहलोॅ छै
हमेशा लेली आँख मुनी केॅ
नीलम के चट्टान के नीचें।

महाकाल केॅ प्राप्त
हमरोॅ रक्षाधिप
ओत्तेॅ-ओत्तेॅ लड़ाय के बादो
की तोहें ने समझेॅ पारलौ
कि युद्ध
आदमी केॅ कुछ नै दिएॅ पारेॅ
खाली महाविनाश के
ई बात नै दानवेन्द्र के मालूम छेलै
नै रक्षाधिप केॅ
तभिये तेॅ
सुम्बा के उजड़ी गेलोॅ छेलै
सुख-भाग।

हाय हमरोॅ मातृभुमि के सुख-भाग
जेकरोॅ स्मृति अभियो मन-प्राण केॅ
हिलकोरी दै छै
सुम्बा के सोना
हीरा-जवाहरात
मोती-माणिक
गाछ-बिरिछ
समुद्र आरो लहर
सब अभियो होने होतै
मतरकि नै जानौं
ऊ युद्ध के बाद
आबेॅ वहां करोॅ आदमी केन्होॅ होतै ?
होन्हे होतै
जेना कि ई लंका के छै
जे जहाँ बचलोॅ छै
बिना प्राण के डोलते पुतला ।

के छेकै एकरो दोखी ?
सोचै छियै
तेॅ जी बेकल होय जाय छै।

ऊ दिन
जबेॅ रक्षाधिप के निष्प्राण देह
हमरोॅ सम्मुख लानलोॅ गेलै,
हठासिये केन्होॅ
हहरी उठलोॅ छेलै हमरोॅ प्राण
जेना माघ-फागुन के
हरहरैतें डाल-पात

कत्तेॅ फूटी-फूटी केॅ
कानलोॅ छेलियै हम्में
ई कही-कही
कि ‘‘हे राक्षसेश्वर
तोरा, युद्ध करे के पहिले
समझैलेॅ छेलियौं
कि तोहें ऊ आर्यपुत्रा सें नै लड़ोॅ
जे मन-प्राण सें
आपनोॅ स्त्रा केॅ चाहै छै
कहिनें कि ओकरोॅ देहोॅ में
ओकरोॅ स्त्रा
अदम्य मन-प्राण नाँखी बहतें रहै छै
ओकरा युद्ध में
के हरावेॅ पारेॅ !
हे लंकाधिपति
तोरा लेॅ एक हम्मीं मन्दोदरी होतियां
तेॅ हमरोॅ बात जरूरे मानतियौ
नै मानलौ; ठानलौ युद्ध
की होलै ?
जे शरीर केॅ देखी
यमराजो केॅ भय छेलै
वही शरीर पर
डोले छेलै यम के प्रेत
सोना से लदलोॅ देह
मांटी आरो रेत!

आय एक हम्मी नै
कै-कै मन्दोदरी
हतभागिन बनलोॅ
आपनोॅ-आपनोॅ सोना के हवेली में
बंदी छै,
युद्ध के दुख तेॅ जनानिये जानै छै ।