भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़त्म अपनी हयात है फिर भी / राज़िक़ अंसारी
Kavita Kosh से
ख़त्म अपनी हयात है फिर भी
ख़्वाहिशे कायनात है फिर भी
मैं अकेला सफ़र में हूँ लेकिन
हाथ में तेरा हाथ है फिर भी
तू नहीं मेरे आस पास कहीं
रूबरु तेरी ज़ात है फिर भी
थक चुके काट काट के लेकिन
कितनी लम्बी ये रात है फिर भी
इक नई ज़िन्दगी को हम जी लें
चन्द लम्हों का साथ है फिर भी