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ख़राबा अपना न गुलज़ार हम कहाँ जाएँ / कांतिमोहन 'सोज़'

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1996 में पार्टी छोड़ते वक़्त

खराबा अपना न गुलज़ार हम कहां जाएँ I
कहाँ पे लाया हमें प्यार हम कहाँ जाएँ II

पता चला कि वो मीरास थी परायों की,
जिसे समझते थे घरबार हम कहाँ जाएँ I

हमारे जैसे करोड़ों हैं आपके हामी,
हमारी है किसे दरकार हम कहाँ जाएँ I

हमारी सारी वफ़ा का सिला जिलावतनी,
ज़रा तो सोचते सरकार हम कहाँ जाएँ I

न बालो-पर न तहम्मुल न आरज़ू कोई,
अब इस मुक़ाम पे नाचार हम कहाँ जाएँ I

तमाम उम्र इसी अंजुमन में काटी थी,
अब और खोजने दरबार हम कहाँ जाएँ I

न हमको आया कभी ख़ुद को बेचने का हुनर
न अपना कोई खरीदार हम कहाँ जाएँ II