भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ख़ामोशी उंगलियां चटखा रही है / नासिर काज़मी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़ामोशी उंगलियां चटखा रही है
तिरी आवाज़ अब तक आ रही है


दिले-वहशी लिए जाता है लेकिन
हवा जंजीर-सी पहना रही है

तिरे शहरे-तरब की रौनकों में
तबीयत और भी घबरा रही है

करम ऐ सरसरे-आलामे-दौरां
दिलों की आग बुझती जा रही है

कड़े कोसों के सन्नाटे हैं लेकिन
तिरी आवाज़ अब तक आ रही है

तनाबे-ख़ैमए-गुल थाम 'नासिर'
कोई आँधी उफ़क़ से आ रही है।