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ख़ामोशी एक ताबूत बनाती है / विद्याभूषण
Kavita Kosh से
ख़ामोशी एक ताबूत बनाती है
और यह फ़िज़ा मेरी दरगाह
बन जाती है।
उस पुरसुकून घेरे से बाहर आकर
पाता हूँ कि लोगबाग,
उनकी ख़बरें, भीड़-भाड़,
रोज़मर्रे की धमाचौकड़ी
गोष्ठी, समारोह जुलूस,
जन्म से मृत्यु तक के विधि-विधान,
हर ख़ास अवसर पर
मजमे में हाज़िरी लगाते हुए
सबकी शर्तों पर मत्था टेक कर
आख़िरश अपना सिर धुनता हूँ।
मेले में माँ से बिछुड़े बच्चे-सा मैं
विषण्ण रहता हूँ इन दिनों।
मीना बाज़ार में
कटी जेब लेकरभटकने का दर्द
मुझे चीरता है।
मैं जादूगर की पेटी में बंद
गुड्डे की तरह
आरों से बार-बार चिर कर भी
साबुत बच जाता हूँ।
मुझे बाहरी चोट नहीं पहुँचती,
मगर भीतर घाव गहरा है।