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ख़िज़ाँ / मुनीर नियाज़ी
Kavita Kosh से
हवा की आवाज़
ख़ुश्क पत्तों की सर्सराहट से भर गई
रोश-रोश पर फ़तादा फूलों ने
लाखों नौहे जगा दिये हैं
सिलेटी शुआयें
बुलन्द पेड़ों पर ग़ुल मचाते
सियाह कौओं की क़ाफ़िलों से अटी हुई हैं
हर एक जानिब ख़िज़ाँ के क़ासिद लपक रहे हैं
हर एक जानिब ख़िज़ाँ की आवाज़ गूँजती है
हर एक बस्ती कशाकश-ए-मर्ग-ओ-ज़िन्दगी से निढाल होकर
मुसाफ़िरों को पुकारती है कि-आओ
मुझ को ख़िज़ाँ के बेमहर
तल्ख़ एहसास से बचाओ