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ख़ुदकुशी कर के अमानतदार नादानी न कर / सादिक़ रिज़वी
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ख़ुदकुशी कर के अमानतदार नादानी न कर
एक़तेज़ाए ज़िंदगी से फेल-ए-शैतानी न कर
है क़दम-बोसी को तेरे सामने मंजिल खड़ी
मुख़्तसर राहे-सफ़र को इतना तूलानी न कर
फ़ूंक कर क़दमों को रक्खा करते हैं अहले ख़िरद
ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों में मनमानी न कर
जिसको सुन के जज़्बा-ए नफ़रत का तूफां हो खड़ा
अपनी तक़रीरों में पैदा ऐसी तुगयानी न कर
फक्रो-फाक़े में निहां है ज़िंदगी की हर खुशी
बात कहता हूँ पते की इस पे हैरानी न कर
जिस्म की रह से गुज़र कर नफ्स मत कर मुतमइन
ख्वाहिशों के जाल में फंसने की नादानी न कर
खैरमक़दम मेहमाँ का झुक के कर 'सादिक़' मगर
मासवा खालिक के इतनी खंदह पेशानी न कर