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ख़ुदगरज़ी के इस आलम में कितने हुए सयाने लोग / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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ख़ुदगरज़ी के इस आलम में कितने हुए सयाने लोग
झूठे रिश्ते क़ायम कर लेते आकर अनजाने लोग

वादों पर बादे करते दम भरते रोज़ वफ़ाओं का
वक़्त पड़े पर ढूंढ लिया करते नित नए बहाने लोग

बात मुहब्बत की करते हैं, आकर सभी बहारों में
नज़र चुराते सभी ख़िज़ओं में जाने-पहचाने लोग

किस ख़ूबी के साथ झूठ पर सच का रंग चढ़ाने को
कैसे-कैसे गढ़ लेेते हैं बड़े-बड़े अफ़साने लोग

मंदिर-मस्जिद-गुरूद्वारों के ठेकेदार बने फिरते
मिले वही छपु-छुप कर जाते रोज़-रोज़ मयख़ाने लोग

नंगी होकर घूम रही है सड़कों पर तहज़ीब नई
बात हया की करते वो हैं, पिछडे़ और पुराने लोग

नकली पंख लगाकर कितने कव्वे हंस बने फिरते
ख़ितमतगार वतन के बनकर भरते ख़ूब ख़ज़ाने लोग

ख़बर नहीं है पल भर की सामान जुटाते सदियों का
इस फ़ानी दुनिया के पीछे हैं कितने दीवाने लोग

तड़प रही हैं रूहें उनकी आज वतन की हालत पर
आज़ादी की शमा के जो बने रहे परवाने लोग

क़सम उठाई जब से हमने हाँ में होँ न मिलाने की
आँख बदल कर ले ‘मधुप’ को तब से बुरा बताने लोग