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ख़ुदा का चेहरा / कुमार विकल

एक दिन मैं शराब पीकर

शहर के अजायब घर में घुस गया

और पत्थर के एक बुत के सामने खड़ा हो गया.

गाइड ने मुझे बताया

यह ख़ुदा का बुत है.


मैंने ख़ुदा के चेहरे की ओर देखा

और डर से काँपता हुआ बाहर की ओर भागा

क्या ख़ुदा हा चेहरा इतना क्रूर हो सकता है !

मैं शराबख़ाने में लौट आया

और आदमक़द आईने के सामने खड़ा हो गया

इस बार मैं पागलों की तरह चीखा

और शराबख़ाने से निकल आया

आदमक़द आईने में मैं नहीं था

अजायब घर वाले ख़ुदा का बुत खड़ा था.


मैं एक पार्क में पहुँचा

जाड़े की धूप ऊन के गोले की तरह खुल रही थी

और एक लड़की अपने शर्मीले साथी से कह रही थी

आज के दिन को एक ‘पुलओवर’ की तरह समझो

और इसे पहन लो

और कसौली की चमकती हुई बर्फ़ को देखो

इन दिनों वह ख़ुदा की पवित्र हँसी की तरह चमकती है

ख़ुदा की पवित्र हँसी!

मैं लड़की की इस बात पर ठहाके से हँस दिया.


लड़की चौंकी

लेकिन उसकी आँखों में डर नहीं था

चमकता हुआ विस्मय था

और वह अपने साथी से कह रही थी

उस शराबी को देखो

वह तो ख़ुदा की तरह हँस रहा है.