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ख़ुदा जाने सबा ने क्या कहीं ग़ुंचों के कानों में / 'सिराज' औरंगाबादी
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ख़ुदा जाने सबा ने क्या कहीं ग़ुंचों के कानों में
कि तब सीं देखता हूँ अंदलीबों कूँ फ़ुगानों में
किया हूँ सैर हुस्न ओ दिल की यक-रंगी का गुलशन में
एवज़ बुलबुल के बर्ग-ए-गुल पड़े थे आशियानों में
कभी उस दिलबर-ए-याक़ूत-लब ने मुँह लगाया है
न बूझो ख़ुद-ब-ख़ुद आया है रंग-ए-सुर्ख़ पाँव में
अलिफ़-क़द के ख़्याल-ए-जुल्फ़ में जब सीं परेशां हैं
उसी दिन सीं है हर्फ़-ए-लाम शानों की ज़बानों में
‘सिराज’ इस शम्अ-रू कूँ क्या है ग़म आशिक़ के जलने का
यही है एक परवाना हमारे क़द्र-दानों में