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ख़ुद को चलने से वो लाचार समझ बैठे हैं / श्याम कश्यप बेचैन

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ख़ुद को चलने से वो लाचार समझ बैठे हैं
बिन चले राह को पुरख़ार समझ बैठे हैं

हम तो दुश्वार को समझे नहीं दुश्वार कभी
लोग आसान को दुश्वार समझ बैठे हैं

कोई समझाए तो समझाए भी कैसे उनको
ख़ुद जो अपने को समझदार समझ बैठे हैं

हम तो आए थे तलब आपकी पूरी करने
आप हमको ही तलबगार समझ बैठे हैं

उसकी बुनियाद भरी है वहम के रोड़ों से
हम जिसे बीच की दीवार समझ बैठे हैं

उसके भीतर भी कभी झाँक के देखा होता
लोग अपना जिसे किरदार समझ बैठे हैं

क़द्रदानी पे हँसी आती है उनकी मुझको
जो रवायत को ही अशआर समझ बैठे हैं

ताज़ा कहते हैं सुनाने को हमेशा मुझको
मेरी ग़ज़लों को क्या अख़बार समझ बैठे हैं