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ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर / मुज़फ़्फ़र 'रज़्मी'

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ख़ुद पुकारेगी जो मंज़िल तो ठहर जाऊँगा
वरना ख़ुद्दार मुसाफ़िर हूँ गुज़र जाऊँगा

आँधियों का मुझे क्या ख़ौफ़ मैं पत्थर ठहरा
रेत का ढेर नहीं हूँ जो बिखर जाऊँगा

ज़िंदगी अपनी किताबों में छुपा ले वरना
तेरे औराक़ के मानिंद बिखर जाऊँगा

मैं हूँ अब तेरे ख़यालात का इक अक्स-ए-जमील
आईना-ख़ाने से निकला तो किधर जाऊँगा

मुझ को हालात में उलझा हुआ रहने दे यूँही
मैं तेरी ज़ुल्फ़ नहीं हूं जो सँवर जाऊँगा

तेज़-रफ़्तार सही लाख मेरा अज़्म-ए-सफ़र
वक़्त आवाज़ जो देगा तो ठहर जाऊँगा

दम न लेने की क़सम खाई है मैं ने 'रज़्मी'
मुझ को मंज़िल भी पुकारे तो गुज़र जाऊँगा