ख़ुद भले ही झेली हो त्रासदी पहाड़ों ने / द्विजेन्द्र 'द्विज'
ख़ुद भले ही झेली हो त्रासदी पहाड़ों ने
बस्तियों को दे दी है हर ख़ुशी पहाड़ों ने
ख़ुद तो जी हमेशा ही तिश्नगी पहाड़ों ने
सागरों को दी लेकिन हर नदी पहाड़ों ने
आदमी को बख़्शी है ज़िन्दगी पहाड़ों ने
आदमी से पाई है बेबसी पहाड़ों ने
हर क़दम निभाई है दोस्ती पहाड़ों ने
हर क़दम पे पाई है बेरुख़ी पहाड़ों ने
मौसमों से टकरा कर हर क़दम पे दी सबके
जीने के इरादों को पुख़्तगी पहाड़ों ने
देख हौसला इनका और शक्ति सहने की !
टूट कर बिखर के भी उफ़ न की पहाड़ों ने
नीलकंठ शैली में विष स्वयं पिए सारे
पर हवा को बख़्शी है ताज़गी पहाड़ों ने
रोक रास्ता उनका हाल जब कभी पूछा
बादलों को दे दी है नग़्मगी पहाड़ों ने
लुट-लुटा के हँसने का योगियों के दर्शन-सा
हर पयाम भेजा है दायिमी पहाड़ों ने
सबको देते आए हैं नेमतें अज़ल से ये
‘द्विज’ को भी सिखाई है शायरी पहाड़ों ने
पयाम = संदेश; दायिमी= स्थाई; अज़ल=सृष्टि का प्रारंभ