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ख़ुद से मिलने के ही कुछ असबाब न थे / कृश्न कुमार तूर

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ख़ुद से मिलने के ही कुछ असबाब न थे
वरना यह ज़ाहिर है हम कमयाब न थे

उन आँखों को देखा तो हम पर ये खुला
बात और थी कुछ ये दरिया पायाब न थे

जाती रुत का उन पर क़हर पड़ा आख़िर
जो पत्ते उन शाख़ों पर शादाब न थे

मेरी आँखों के आँसू का मोल ही क्या
ये वो नगीने हैं जो कभी नायाब न थे

जितना लबे-लरज़िश से ज़ाहिर होता है
‘तूर’ हम उतना कहने को बेताब न थे