भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़ुशबुओं की तरह महकते गए / चाँद शुक्ला हदियाबादी
Kavita Kosh से
ख़ुशबुओं की तरह महकते गए
तेरी ज़ुल्फ़ों के साए डसते गए
जो न होना था वो हुआ यारो
भीड़ थी रास्ते बदलते गए
न मिला तू न तेरे घर का पता
हम तेरी दीद को तरसते गए
ज़िंदगी को जिया है घुट-घुट कर
दिल में अरमान थे मचलते गए
कैसा बचपन था बिन खिलौनों के
चुटकियों से ही हम बहलते गए
मेरे सपने अजीब सपने थे
मौसमों के तरह बदलते गए
जब छुपा बादलों की ओट में "चाँद"
ग़मज़दा थे सितारे ढलते गए