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ख़ुशी की बात मुक़द्दर से दूर है बाबा / लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी

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ख़ुशी की बात मुक़द्दर से दूर है बाबा
कहीं निज़ाम में कोई फ़तूर है बाबा

जो सो रहा है लिपट कर अना के दामन से
जगा के देख ये मेरा शऊर है बाबा

घटाएँ पी के भी सहरा की प्यास रखता हूँ
न जाने प्यास में कैसा सरूर है बाबा

भरी बहार में बैठे हैं हम अलम-बकनार
ज़रा बता कि ये किसका क़सूर है बाबा


तेरी निगाह में जो एक जल्वा देख लिया
मेरे लिए वही असरारे-तूर है बाबा

मये-निशात में देखा है झूमकर बरसों
मये-अलम में भी देख अब सरूर है बाबा

गुमान सुबहे-बदन है यक़ीन शामे-नज़र
ढला हुआ तेरे सांचे में नूर है बाबा

कभी कोई तो उसे जोड़ पाएगा शायद
अभी तो शीशा-ए-दिल चूर-चूर है बाबा

नमूदे-नौ में तेरे ही तस्व्वुराते-हसीं
तेरा ख़याल बिना-ए-शऊर है बाबा

मेरा वजूद तेरे शौक़ का नतीजा है
इसी लिए तो ये साए से दूर है बाबा

छुपा -छुपा के मैं रक्खूँ कहाँ इसे ऐ ‘चाँद’
मताए-ज़ीस्त ये तेरे हुज़ूर है बाबा