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ख़ुशी से ढँाक के आँखें, ख़ुशी को ढूँढता इक दिन / सूरज राय 'सूरज'

ख़ुशी से ढांक के आँखें, ख़ुशी को ढूंढता इक दिन।
बुलाता है लड़कपन में फुदकता तोतला इक दिन॥

सज़ा मजबूरियों के जिस्म को रोटी के कोठे में
किसी के पाँव में घुंघरू-सा ख़ुद को बांधता इक दिन॥

किसी बेटे किसी साजन किसी भैया के आने की
सुबह की कांव-कांव पर उमीदें टांगता इक दिन॥

सवाले-सफ़्ह पर माज़ी की कोई फोड़ के गुल्लक
लिखा है डायरी में आज तुमसा सांवला इक दिन॥

नहाने की सिसकते ख़ूं से आदत छोड़ दो वरना
लिखेगा आँख का पानी तुम्हारा फ़ैसला इक दिन॥

ख़ुदा का रोज़ करते शुक्रिया इक रात ढलने का
वहीं फिर रात को कहते हैं कि यारब कटा इक दिन॥

मुझे मालूम था मेरी चिता सब कुछ जला देगी
बचेगा बस सुकूँ का मुंतज़िर वह अधजला इक दिन॥

हरूफ़े-पल हैं मेरी दास्ताँ में ज़िंदगी उन्वां
हर इक सफ़्हों में छोड़ा है किसी का हाशिया इक दिन॥

अभी तू जा अज़ल हैं चन्द ज़िम्मेदारियाँ मुझ पे
है वादा जल्द ही मिलकर करेंगे नाश्ता इक दिन॥

हिसाबे-साँस दूंगा कल ये कहके टाल देता हूँ
सुब्ह से फिर चला आता है दर पर सरफिरा इक दिन॥

उसूलो-सचबयानी दार तक ले आए हैं "सूरज"
तुझे मालूम था टूटेगा तुझपे हादसा इक दिन॥