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ख़ुश-फ़हमियों को दर्द का रिश्ता अज़ीज़ था / निश्तर ख़ानक़ाही

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ख़ुश-फ़हमियों को दर्द का रिश्ता अज़ीज़ था
कागज़ की नाव थी जिसे दरिया अज़ीज़ था

ऐ तंगी-ए-दयार-तमन्ना बता मुझे
वो पाँव क्या हुए जिन्हें सहरा अज़ीज़ था

पूछो न कुछ के शहर में तुम हो नए नए
इक दिन मुझे भी सैर तो तमाशा अज़ीज़ था

बे-आस इंतिज़ार ओ तवक़्क़ो बग़ैर शक
अब तुम से क्या कहें हमें कया क्या अज़ीज़ था

वादा-ख़िलाफ़ियों पे था शिकवों का इंहिसार
झूठा सही मगर मुझे वादा अज़ीज़ था

इक रस्म-ए-बे-वफ़ाई थी वो भी हुई तमाम
वो यार-ए-बे-वफ़ा मुझे कितना अज़ीज़ था

यादें मुझे न जुर्म-ए-तअल्लुक़ की दें सज़ा
मेरा कोई न मैं ही किसी का अज़ीज़ था