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ख़ून की होली जो खेली / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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युवकजनों की है जान ;
   ख़ून की होली जो खेली ।
पाया है लोगों में मान,
   ख़ून की होली जो खेली ।

रँग गये जैसे पलाश;
   कुसुम किंशुक के, सुहाए,
कोकनद के पाए प्राण,
    ख़ून की होली जो खेली ।

निकले क्या कोंपल लाल,
     फाग की आग लगी है,
फागुन की टेढ़ी तान,
     ख़ून की होली जो खेली ।

खुल गई गीतों की रात,
      किरन उतरी है प्रात की ;-
हाथ कुसुम-वरदान,
   ख़ून की होली जो खेली ।

आई सुवेश बहार,
   आम-लीची की मंजरी;
कटहल की अरघान,
    ख़ून की होली जो खेली ।

विकच हुए कचनार,
    हार पड़े अमलतास के ;
पाटल-होठों मुसकान,
    ख़ून की होली जो खेली ।

 यह कविता निराला जी ने 1946 के स्वाधीनता संग्राम में विद्यार्थियों के देश-प्रेम पर लिखी थी और यह गया से प्रकाशित साप्ताहिक 'उषा' के होलिकांक में मार्च 1946 में प्रकाशित हुई ।