भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़ूबसूरत झील में हँसता कँवल भी चाहिए/ मुनव्वर राना
Kavita Kosh से
ख़ूबसूरत झील में हँसता कँवल भी चाहिए
है गला अच्छा तो फिर अच्छी ग़ज़ल भी चाहिए
उठ के इस हँसती हुई दुनिया से जा सकता हूँ मैं
अहले-महफ़िल<ref>सभा वालों को</ref>को मगर मेरा बदल<ref>स्थानापन्न</ref> भी चाहिए
सिर्फ़ फूलों से सजावट पेड़ की मुम्किन<ref>संभव</ref>नहीं
मेरी शाख़ों को नए मौसम में फल भी चाहिए
ऐ मेरी ख़ाके- वतन<ref>स्वदेश रज</ref>! तेरा सगा बेटा हूँ मैं
क्यों रहूँ फुटपाथ पर मुझको महल भी चाहिए
धूप वादों की बुरी लगने लगी है अब हमें
सिर्फ़ तारीफ़ें नहीं उर्दू का हल भी चाहिए
तूने सारी बाज़ियाँ जीती हैं मुझपर बैठ कर
अब मैं बूढ़ा हो रहा हूँ अस्तबल भी चाहिए
शब्दार्थ
<references/>