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ख़ूब तरक़्क़ी करते हैं ये दोहरे लोग / दीपक शर्मा 'दीप'
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ख़ूब तरक़्क़ी करते हैं ये दोहरे लोग
लेकिन भूखों मरते हैं ये दोहरे लोग
अगवानों-भगवानों के तो बाप हैं ये
ख़ुदा-वुदा से डरते हैं ये दोहरे लोग?
सबको पीड़ा पहुँचाकर के रातो-दिन
अपनी पीड़ा हरते हैं ये दोहरे लोग
थकते भी हैं क्या दोहरेपन पे चलकर
यानी कहीं ठहरते हैं ये दोहरे लोग?
इनका पेशा है कि सब की आँखों में
धूल-ओ-आँसू भरते हैं ये दोहरे लोग
मीठा-मीठा बोल-बोल कर छाती पर
मूंग मुसलसल दरते हैं ये दोहरे लोग
ख़ून सोखते हैं जोंकों के मानिंद 'दीप'
घास अमा क्या चरते हैं ये दोहरे लोग