भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़्वाबों के आसरे पे बहुत दिन जिए हो तुम / सलमान अख़्तर
Kavita Kosh से
ख़्वाबों के आसरे पे बहुत दिन जिए हो तुम
शायद यही सबब के के तनहा रहे हो तुम
अपने से कोई बात छुपाई नहीं कभी
ये भी फ़रेब ख़ुद को बहुत दे चुके हो तुम
पूछा है अपने आप से मैं ने हज़ार बार
मुझ को बताओ तो सही क्या चाहते हो तुम
ख़ाली बरामदों ने मुझे देख कर कहा
क्या बात है उदास से कुछ लग रहे हो तुम
घर के लबों पे आज तक आया न ये सवाल
हो कर कहाँ से आए हो क्या थक गए हो तुम