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ख़्वाब जो टूटे / प्रियंका गुप्ता

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1
धूप अकेली
औंधे मुँह थी पड़ी
किसी ने न मनाया;
शाम को उठी
थके-थके क़दमों
वापस घर चली ।
2
पढ़ना चाहा
ज़िंदगी की किताब
आधी-अधूरी मिली ;
भीगा था मन
सीली- सी किताब भी
सहेजूँ भला कैसे ?
3
परछाइयाँ
यहाँ-वहाँ बिखरी
कितनी दर्द भरी;
आओ समेटे
खुशी भरी धूप में
फिर से बिखेर दें।
4
तेरा यूँ जाना
बेचैन कर जाता
अपनो के बीच भी,
अकेलापन
मन को जैसे डँसे
अब आ भी जाओ न !
5
ख़्वाब जो टूटे
किरचें चुभती हैं
मन गीला है अभी,
उस चोट से
जो दिखी न किसी को
तू भी न जान सका ।
6
याद में तेरी
अब रोती नहीं हूँ
बस सोचा करती,
क्या तुम आके
पोंछ दोगे ये आँसू
अपनी आस्तीन से ?
7
खामोशियाँ हैं-
दिल के आँगन में
सन्नाटों की आवाज़
दूर तलक
सुनाई दे जाएगी
गर दिल से सुनो ।