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खामोश लम्हे दिन,महिनों.... सालों में ढल गए / नवनीत पाण्डे

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कहां कहां तक के फ़ासले
तय किए पैरों ने
लेकिन जब भी चाहा
बढना तुम्हारी ओर....
टस से मस नहीं हुए

कैंची की तरह हमेशा
चलती रही ज़ुबां
पर जब आया वक्त
कहने का तुम्हें कुछ....
होंठ तालू से चिपक गए

जाने क्या-क्या कहा-सुना
जाने ज़िंदगी ने कितना कुछ चुना
पर वह न कहा वह न सुना
अरमान हमारे दिल के....
दिल ही में रह गए

एक अजाना रिश्ता, फ़ासला लिए
चलते रहे साथ-साथ
खामोश लम्हे
दिन,महिनों....
सालों में ढल गए