Last modified on 2 सितम्बर 2008, at 19:05

खिज़ां के खुश्क पत्तों से जहाँ बिखरे हुए चेहरे / विनय कुमार

खिज़ां के खुश्क पत्तों से जहाँ बिखरे हुए चेहरे।
वहां हम ढूँढते हैं आग़ में निखरे हुए चेहरे।

कसक पहचान खोने की दिलों में क्यों नहीं होती
गवां कर खासियत क्यों भीड़ के चेहरे हुए चेहरे।

बहुत जद्दोज़हद चेहरे खिलाने की यहाँ लेकिन
समय की डाल से लटके हुए कुतरे हुए चेहरे।

नये चेहरे बनाने की ज़रूरत क्या सियासत में
दुबारा काम आते हैं जहाँ उतरे हुए चेहरे।