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खिड़की / शंभुदयाल सक्सेना
Kavita Kosh से
खिड़की है मकान की आँख,
लेते सभी उसी से झाँक।
आता जब कोई इस ओर,
खिड़की तब कर देती शोर।
अगर जाननी हो यह बात,
कहाँ जाएँगे पापा प्रात!
तो बैठो खिड़की को खोल,
देती पीट भेद का ढोल।
माँ के मंदिर की यदि राह,
तुम्हें जानने की हो चाह।
खिड़की में बैठो चुपचाप,
बतला देती अपने आप।
हो सीखना बहिन का खेल,
करो दौड़ खिड़की से मेल।
लोगे सभी भेद तुम जान,
तब दीदी होगी हैरान।