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खिलकर दिखाओ अशोक / संतोष श्रीवास्तव

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मेरे सामने है अशोक के फूल
और कई सारे सवाल
ये वही अशोक के फूल है
जो बसंत ऋतु में
सुंदरियों के पदाघात से ही खिलते हैं
मैं पूछना चाहती हूँ...
वह कौन-सी मजबूरी है अशोक
जो तुम
सुंदरियों के पदाघात से ही खिलते हो ...

तुम हो तो नर
जिसने कर लिए हैं सारे हक औरतों के
अपनी मुट्ठी की ज़द में
फिर ऐसा क्या है ...?
उनके पैरों में
जो तुम खिल पड़ते हो...

क्यों नहीं उस आघात से तुम तिलमिलाते
क्यों बन जाते हो
कामदेव का पांचवा तीर
क्या उन पैरों की छुअन से ही तुम कामसिक्त हो
औरों के अंदर प्रेमरोग
जगा देते हो...

तीर के रूप में
तुम्हें ही तो साधा था
कामदेव ने विश्वामित्र पर
क्यों नहीं चूके तुम
किस बात का मान है तुम्हें अशोक
क्यों नहीं सोचा
तुम्हारी शाखों पर
फूल खिला कैसे
वो पदाघात की अवमानना
प्रेम का उद्दीपन बन गई

आज तमाम दिशाओं में
धरती आकाश पाताल में
और मनुष्य के विवेक में
गूंज रहा है मेरा सवाल
खिल कर दिखाओ अशोक
बिना नारी के पदाघात के
खिल कर दिखाओ ...