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खिलखिलाता था अभी मन / अमरेन्द्र
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खिलखिलाता था अभी मन
क्या हुआ इतना विकल है !
गुनगुनी-सी धूप, दिन था
मोरपंखी मन मगन भी,
कोपलों-सा तन में सिहरन
साम-मंत्रों-सा वचन भी;
भाव; जैसे, अगर चन्दन,
नैन-सपनों का सरोवर,
मंजरी-वन में कुहुक-सा
मोह की प्रतिफल ही भाँवर;
सब हुए चंचल तिरोहित
आह पहली-सी अचल है।
पीर परिचित प्राण से है
प्राण परिचित पीर से अब,
हर समय, हर पल यहाँ तो
क्रौंच घायल तीर से अब;
मधु वयस मधु कामना सब
रेत तपते जेठ की ज्यों,
मेघ श्यामल को ललायित
मन पथिक मरुभूमि में क्यों!
सृष्टि सूखे ताल-सी है
जीव मुरझाया कमल है ।