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खिली धूप से सीखा मैने खुले गगन में जीना / डी. एम. मिश्र

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खिली धूप से सीखा मैने खुले गगन में जीना
पकी फ़सल में देखा मैंने खुशबूदार पसीना।

अभी तो मेरे अम्मा - बाबू दोनों घर में बैठे
अभी तो मेरा घर ही लगता मक्का और मदीना।

लोग साथ थे इसीलिए वरना हचकोले खाता
पार कर गया पूरा दरिया छोटा एक सफ़ीना।

कहाँ ढूँढने निकले हो अमरित इस अंध गली में
अगर ज़िंदगी जीना है तो सीख लो विष भी पीना।

कई हुकूमत देख लिया है सदियाँ गुज़र गईं हैं
बहुत बार टकराया तेरा खंजर मेरा सीना।