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खिले-से चौक-चौबारे नहीं हैं / ओंकार सिंह विवेक
Kavita Kosh से
खिले-से चौक-चौबारे नहीं हैं,
नगर में अब वो नज़्ज़ारे नहीं हैं।
गुमां तोडेंगे जल्दी आसमां का,
परिंदे हौसला हारे नहीं हैं।
तलब है कामयाबी की सभी को ,
हमीं इस दौड़ में न्यारे नहीं हैं।
बना बैठा है जो अब शाह,उसने-
भला किस-किस के हक़ मारे नहीं हैं।
हैं जितनी ख़्वाहिशें मन में बशर के,
गगन में इतने तो तारे नहीं हैं।
नज़र से एक ही,देखो न सबको,
बुरे कुछ लोग हैं सारे नहीं हैं।
उन्हें भाती है आवारा मिज़ाजी,
कहें कैसे वो बंजारे नहीं हैं।