भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खुदा-२ /गुलज़ार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं दीवार की इस जानिब हूँ .
इस जानिब तो धूप भी है हरियाली भी !
ओस भी गिरती है पत्तों पर,
आ जाये तो आलसी कोहरा,
शाख पे बैठा घंटों ऊँघता रहता है.
बारिश लम्बी तारों पर नटनी की तरह थिरकती,
आँखों से गुम हो जाती है,
जो मौसम आता है,सारे रस देता है !

लेकिन इस कच्ची दीवार की दूसरी जानिब,
क्यों ऐसा सन्नाटा है
कौन है जो आवाज नहीं करता लेकिन--
दीवार से टेक लगाए बैठा रहता है.