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खुद को हार बैठा हूँ / सुरजीत मान जलईया सिंह
Kavita Kosh से
जीत कर तुम्हें तुम से
खुद को हार बैठा हूँ
साथ भी तुम्हारा था
हाथ भी तुम्हारा था
इस नदी की लहरों पर
प्रेम जल तुम्हारा था
आज इस अहम से
सब तट बंध टूटे हैं
तुम नदी के उस पार
इस पार बैठा हूँ
जीत कर तुम्हें तुम से
खुद को हार बैठा हूँ
पाँव भी नहीं चलते
बस वहीं पे ठहरे हैं
आज भी मेरे घर में
बस तुम्हारे पहरे हैं
कैसी तुम उधर होगीं
सोचकर गुजरता दिन
रात को अंधेरों में
बार - बार बैठा हूँ
जीत कर तुम्हें तुम से
खुद को हार बैठा हूँ
मूक हूँ कई दिन से
हूक है रुदन की बस
आग लग गयी मन में
राख है बदन की बस
भस्म हो गयीं खुशियां
प्यार के समन्दर में
तुम से दूर होकर मैं
खुद को मार बैठा हूँ
जीत कर तुम्हें तुम से
खुद को हार बैठा हूँ