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खुलते -खुलते खुल जाते हैं पर्दे इज़्ज़तदारों के / प्रेम भारद्वाज

खुलते-खुलते खुल जाते हैं पर्दे इज़्ज़तदारों के
आम सभा जब नंगे करती शौक बड़े दरबारों के

ज़ख़्म दिए जब अपनो ने ही मरहम से भी क्या बनता
नश्तर थे तो सिर्फ ज़ुबाँ के वार न थे तलवारों के

माना निर्धन की जोरू तो होती है सबकी भाभी
हाल कहां देखें हैं सबने कुछ ऊँचे घर बारों के

रीत यही है हर युग की ही नाम बड़ों का होता है
जान गवाएँ लड़कर फौजें नाम उछलें सरदारों के

भूख़ बिना पकवान भी सारे कब आकर्षित करते हैं
प्रेम नहीं तो फीके हैं सब किस्से मौज बहारों के